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न देखूँगा हसीनों को अरे तौबा न देखूँगा | शाही शायरी
na dekhunga hasinon ko are tauba na dekhunga

ग़ज़ल

न देखूँगा हसीनों को अरे तौबा न देखूँगा

ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब

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न देखूँगा हसीनों को अरे तौबा न देखूँगा
तक़ाज़ा लाख तू कर ऐ दिल-ए-शैदा न देखूँगा

करूँ नासेह मैं क्यूँकर हाए ये वादा न देखूँगा
नज़र पड़ जाएगी ख़ुद ही जो दानिस्ता न देखूँगा

निगाह-ए-नाज़ को तेरी मैं शर्मिंदा न देखूँगा
हटाए लेता हूँ अपनी नज़र अच्छा न देखूँगा

वो कहते हैं न समझूँगा तुझे 'मज्ज़ूब' मैं आशिक़
कि जब तक कूचा ओ बाज़ार में रुस्वा न देखूँगा

बला से मैं अगर रो रो के बीनाई भी खो बैठूँ
करूँगा क्या इन आँखों को जो वो जल्वा न देखूँगा

बला से मेरे दिल पर मेरी जाँ कुछ ही गुज़र जाए
मैं तेरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक को आज़ुर्दा न देखूँगा

उठाऊँगा न ज़ानू से मैं हरगिज़ अपना सर हमदम
अरे मैं अपनी आँखों से उन्हें जाता न देखूँगा

हसीनों से वही फिर हज़रत-ए-दिल दीदा-बाज़ी है
अभी तो कर रहे थे आप ये दावा न देखूँगा

ज़रा ऐ नासेह-ए-फ़र्ज़ाना चल कर सुन तो दो बातें
न होगा फिर भी तू 'मज्ज़ूब' का दीवाना देखूँगा