न देखूँगा हसीनों को अरे तौबा न देखूँगा
तक़ाज़ा लाख तू कर ऐ दिल-ए-शैदा न देखूँगा
करूँ नासेह मैं क्यूँकर हाए ये वादा न देखूँगा
नज़र पड़ जाएगी ख़ुद ही जो दानिस्ता न देखूँगा
निगाह-ए-नाज़ को तेरी मैं शर्मिंदा न देखूँगा
हटाए लेता हूँ अपनी नज़र अच्छा न देखूँगा
वो कहते हैं न समझूँगा तुझे 'मज्ज़ूब' मैं आशिक़
कि जब तक कूचा ओ बाज़ार में रुस्वा न देखूँगा
बला से मैं अगर रो रो के बीनाई भी खो बैठूँ
करूँगा क्या इन आँखों को जो वो जल्वा न देखूँगा
बला से मेरे दिल पर मेरी जाँ कुछ ही गुज़र जाए
मैं तेरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक को आज़ुर्दा न देखूँगा
उठाऊँगा न ज़ानू से मैं हरगिज़ अपना सर हमदम
अरे मैं अपनी आँखों से उन्हें जाता न देखूँगा
हसीनों से वही फिर हज़रत-ए-दिल दीदा-बाज़ी है
अभी तो कर रहे थे आप ये दावा न देखूँगा
ज़रा ऐ नासेह-ए-फ़र्ज़ाना चल कर सुन तो दो बातें
न होगा फिर भी तू 'मज्ज़ूब' का दीवाना देखूँगा
ग़ज़ल
न देखूँगा हसीनों को अरे तौबा न देखूँगा
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब