न बुलबुल में न परवाने में देखा 
जो सौदा अपने दीवाने में देखा 
बराबर ऊस की ज़ुल्फ़ों के सियह-बख़्त 
मैं अपने बख़्त को शाने में देखा 
किसी हिन्दू मुसलमाँ ने ख़ुदा को 
न काबे में न बुत-ख़ाने में देखा 
न कोहिस्ताँ में देखा कोहकन ने 
न कुछ मजनूँ ने वीराने में देखा 
न अस्कंदर ने देखा आईने में 
न जम ने अपने पैमाने में देखा 
पर उस की कुनह को कोई न पहुँचा 
जिसे देखा सो अफ़्साने में देखा 
फ़क़ीरों से सुना है हम ने 'हातिम' 
मज़ा जीने का मर जाने में देखा
        ग़ज़ल
न बुलबुल में न परवाने में देखा
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

