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न बुलबुल में न परवाने में देखा | शाही शायरी
na bulbul mein na parwane mein dekha

ग़ज़ल

न बुलबुल में न परवाने में देखा

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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न बुलबुल में न परवाने में देखा
जो सौदा अपने दीवाने में देखा

बराबर ऊस की ज़ुल्फ़ों के सियह-बख़्त
मैं अपने बख़्त को शाने में देखा

किसी हिन्दू मुसलमाँ ने ख़ुदा को
न काबे में न बुत-ख़ाने में देखा

न कोहिस्ताँ में देखा कोहकन ने
न कुछ मजनूँ ने वीराने में देखा

न अस्कंदर ने देखा आईने में
न जम ने अपने पैमाने में देखा

पर उस की कुनह को कोई न पहुँचा
जिसे देखा सो अफ़्साने में देखा

फ़क़ीरों से सुना है हम ने 'हातिम'
मज़ा जीने का मर जाने में देखा