न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
चमन के फूल अगर तेरी आरज़ू करते
जनाब-ए-शैख़ पहुँच जाते हौज़-ए-कौसर तक
अगर शराब से मय-ख़ाने में वज़ू करते
मसर्रत आह तू बस्ती है किन सितारों में
ज़मीं पे उम्र हुई तेरी जुस्तुजू करते
अयाग़-ए-बादा में आ कर वो ख़ुद छलक पड़ता
गर उस के मस्त ज़रा और हाव हू करते
उन्हें मफ़र न था इक़रार-ए-इश्क़ से लेकिन
हया को ज़िद थी कि वो पास-ए-आबरू करते
पुकार उठता वो आ कर दिलों की धड़कन में
हम अपने सीने में गर उस की जुस्तुजू करते
ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना
ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते
गिराँ था साक़ी-ए-दौराँ पे एक साग़र भी
तो किस उमीद पे हम ख़्वाहिश-ए-सुबू करते
जुनून-ए-इश्क़ की तासीर तो ये थी 'अख़्तर'
कि हम नहीं वो ख़ुद इज़हार-ए-आरज़ू करते
ग़ज़ल
न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
अख़्तर शीरानी