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न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है | शाही शायरी
na betabi na aashufta-sari hai

ग़ज़ल

न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

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न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
हमारी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है

फ़रेब-ए-आरज़ू खाएँ तो क्यूँ कर
तग़ाफ़ुल है न बेगाना-वशी है

फ़रोग़-ए-इश्क़ है महरूमियों से
वफ़ा-केशी ब-क़द्र-ए-ना-रसी है

मिरे क़स्र-ए-तमन्ना की निगहबाँ
निगाह-ए-नाज़ की बेगानगी है

मोहब्बत के सिवा जादा न मंज़िल
मोहब्बत के सिवा सब गुमरही है

मोहब्बत में शिकायत क्या गिला क्या
मोहब्बत बंदगी है बंदगी है

ख़ुदा बर-हक़ मगर इस को करें क्या
बुतों में सद-फ़ुसून-ए-दिलबरी है

मुझे नफ़रत नहीं जन्नत से लेकिन
गुनाहों में अजब इक दिलकशी है

न दो हूर-ओ-मय-ओ-कौसर के ता'ने
कि ज़ाहिद भी तो आख़िर आदमी है