न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
हमारी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
फ़रेब-ए-आरज़ू खाएँ तो क्यूँ कर
तग़ाफ़ुल है न बेगाना-वशी है
फ़रोग़-ए-इश्क़ है महरूमियों से
वफ़ा-केशी ब-क़द्र-ए-ना-रसी है
मिरे क़स्र-ए-तमन्ना की निगहबाँ
निगाह-ए-नाज़ की बेगानगी है
मोहब्बत के सिवा जादा न मंज़िल
मोहब्बत के सिवा सब गुमरही है
मोहब्बत में शिकायत क्या गिला क्या
मोहब्बत बंदगी है बंदगी है
ख़ुदा बर-हक़ मगर इस को करें क्या
बुतों में सद-फ़ुसून-ए-दिलबरी है
मुझे नफ़रत नहीं जन्नत से लेकिन
गुनाहों में अजब इक दिलकशी है
न दो हूर-ओ-मय-ओ-कौसर के ता'ने
कि ज़ाहिद भी तो आख़िर आदमी है
ग़ज़ल
न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
हबीब अहमद सिद्दीक़ी