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न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था | शाही शायरी
na aaya kar ke wada wasl ka iqrar tha kya tha

ग़ज़ल

न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
किसी के बस में था मजबूर था लाचार था क्या था

बुरा हो बद-गुमानी का वो नामा ग़ैर का समझा
हमारे हाथ में तो परचा-ए-अख़बार था क्या था

सदा सुनते ही गोया मुर्दनी सी छा गई मुझ पर
ये शोर-ए-सूर था या वस्ल का इंकार था क्या था

ख़ुदा का दोस्त है तामीर-ए-दिल जो शख़्स करता हो
ख़लीलुल्लाह भी काबा का इक मेमार था क्या था

न आए तुम न आओ मैं ने क्या कुछ मिन्नतें की थीं
तुम्हीं ने ख़ुद किया था अहद ये इक़रार था क्या था

हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था

मिला तू हम से महफ़िल में जो शब को ग़ैर क्यूँ बिगड़ा
तिरा हाकिम था ठेका-दार था मुख़्तार था क्या था

मिरी मय्यत पे मातम करते हो अल्लाह-रे चालाकी
ख़बर है ख़ुद तुम्हें मुद्दत से मैं बीमार था क्या था

हज़ारों हसरतें बेताब थीं बाहर निकलने को
वो सोते में भी 'परवीं' फ़ित्ना-ए-बेदार था क्या था