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मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है | शाही शायरी
muzhda ai zauq-e-asiri ki nazar aata hai

ग़ज़ल

मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है

मिर्ज़ा ग़ालिब

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मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
दाम-ए-ख़ाली क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास

जिगर-ए-तिश्ना-ए-आज़ार तसल्ली न हुआ
जू-ए-ख़ूँ हम ने बहाई बुन-ए-हर ख़ार के पास

मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें है है
ख़ूब वक़्त आए तुम इस आशिक़-ए-बीमार के पास

मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
दशना इक तेज़ सा होता मिरे ग़म-ख़्वार के पास

दहन-ए-शेर में जा बैठे लेकिन ऐ दिल
न खड़े हो जिए ख़ूबान-ए-दिल-आज़ार के पास

देख कर तुझ को चमन बस-कि नुमू करता है
ख़ुद-ब-ख़ुद पहुँचे है गुल गोशा-ए-दस्तार के पास

मर गया फोड़ के सर ग़ालिब-ए-वहशी है है
बैठना उस का वो आ कर तिरी दीवार के पास