मुशाहिदा न कोई तजरबा न ख़्वाब कोई
तमाम शेर-ओ-सुख़न हर्फ़-ए-इजतिनाब कोई
इक इंतिज़ार-ए-मुसलसल में दिन गुज़रते हैं
कि आते आते न आ जाए इंक़लाब कोई
तमाम अहल-ए-ज़माना शिकार-ए-हिर्स-ओ-हवस
करे तो कैसे करे अपना एहतिसाब कोई
न इस क़दर ग़म-ओ-ग़ुस्सा को पी के रह जाना
कि सब्र-ओ-ज़ब्त की आदत बने अज़ाब कोई
तमाम उम्र सवालात पूछने वाले
किसे मिला है जो तुझ को मिले जवाब कोई
ग़ज़ल
मुशाहिदा न कोई तजरबा न ख़्वाब कोई
याक़ूब राही