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मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही | शाही शायरी
musalsal ek hi taswir chashm-e-tar mein rahi

ग़ज़ल

मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही

यासमीन हमीद

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मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही
चराग़ बुझ भी गया रौशनी सफ़र में रही

रह-ए-हयात की हर कशमकश पे भारी है
वो बेकली जो तिरे अहद-ए-मुख़्तसर में रही

ख़ुशी के दौर तो मेहमाँ थे आते जाते रहे
उदासी थी कि हमेशा हमारे घर में रही

हमारे नाम की हक़दार किस तरह ठहरे
वो ज़िंदगी जो मुसलसल तिरे असर में रही

नई उड़ान का रस्ता दिखा रही है हमें
वो गर्द पिछले सफ़र की जो बाल-ओ-पर में रही