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मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा | शाही शायरी
murad-e-shikwa nahin lutf-e-guftugu ke siwa

ग़ज़ल

मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा

ज़ेब ग़ौरी

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मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा
बचा है पैरहन जाँ में क्या रफ़ू के सिवा

हवा चली थी हर इक सम्त उस को पाने की
न कुछ भी हाथ लगा गर्द-ए-जुस्तुजू के सिवा

किसी की याद मुझे बार बार क्यूँ आई
उस एक फूल में क्या शय थी रंग-ओ-बू के सिवा

उभरता रहता है इस ख़ाक-ए-दिल पे नक़्श कोई
अब इस नवाह में कुछ भी नहीं नुमू के सिवा

अधूरी छोड़ के तस्वीर मर गया वो 'ज़ेब'
कोई भी रंग मयस्सर न था लहू के सिवा