EN اردو
मुंहदिम होती हुई आबादियों में फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब होते | शाही शायरी
munhadim hoti hui aabaadiyon mein fursat-e-yak-KHwab hote

ग़ज़ल

मुंहदिम होती हुई आबादियों में फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब होते

सरवत हुसैन

;

मुंहदिम होती हुई आबादियों में फ़ुर्सत-ए-यक-ख़्वाब होते
हम भी अपने ख़िश्त-ज़ारों के लिए आसूदगी का बाब होते

शहर-ए-आज़ुर्दा-फ़ज़ा में आबगीनों को ब-रू-ए-कार लाते
शाम की इन ख़ानुमाँ वीरानियों में सोहबत-ए-अहबाब होते

ताज़ा ओ ग़मनाक रखते आस और उम्मीद की सब कोंपलों को
और फिर हमराही-ए-बाद-ए-शबाना के लिए महताब होते

ख़ुद-कलामी के भँवर में डूबती परछाईं बन कर रह गए हैं
इस अँधेरी रात में घर से निकलते तो सितारा-याब होते

ख़ाक-आलूदा ज़मानों पर बरसती झूमती काली घटाएँ
मौसमों की आब-ओ-ख़ाक-आराइयों से आइने सैराब होते