मुमकिन नहीं है अपने को रुस्वा वफ़ा करे
दुनिया-ए-बे-सबात की ख़ातिर दुआ करे
नूर-ए-वजूद और अगर हौसला करे
शम-ए-हयात जल के भी कुछ लौ दिया करे
मर मर के कोई कब तलक आख़िर जिया करे
क्यूँ हर नफ़स से ज़ीस्त के ता'ने सुना करे
जब कोशिश-ए-तमाम भी रह जाए ना-तमाम
ऐ हासिल-ए-हयात बता कोई क्या करे
जो ग़म नसीब-ए-यार हो ख़ुद अपनी ज़ीस्त पर
कब तक निगाह-ए-नाज़ का वो आसरा करे
है आलम-ए-वजूद पे छाया हुआ जुमूद
ऐ काश इंक़लाब कोई फ़ैसला करे
अब आरज़ू यही है दम-ए-नज़्अ' ऐ 'वफ़ा'
ग़ैर-अज़-ख़ुदा न याद रहे कुछ ख़ुदा करे
ग़ज़ल
मुमकिन नहीं है अपने को रुस्वा वफ़ा करे
वफ़ा बराही