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मुमकिन नहीं है अपने को रुस्वा वफ़ा करे | शाही शायरी
mumkin nahin hai apne ko ruswa wafa kare

ग़ज़ल

मुमकिन नहीं है अपने को रुस्वा वफ़ा करे

वफ़ा बराही

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मुमकिन नहीं है अपने को रुस्वा वफ़ा करे
दुनिया-ए-बे-सबात की ख़ातिर दुआ करे

नूर-ए-वजूद और अगर हौसला करे
शम-ए-हयात जल के भी कुछ लौ दिया करे

मर मर के कोई कब तलक आख़िर जिया करे
क्यूँ हर नफ़स से ज़ीस्त के ता'ने सुना करे

जब कोशिश-ए-तमाम भी रह जाए ना-तमाम
ऐ हासिल-ए-हयात बता कोई क्या करे

जो ग़म नसीब-ए-यार हो ख़ुद अपनी ज़ीस्त पर
कब तक निगाह-ए-नाज़ का वो आसरा करे

है आलम-ए-वजूद पे छाया हुआ जुमूद
ऐ काश इंक़लाब कोई फ़ैसला करे

अब आरज़ू यही है दम-ए-नज़्अ' ऐ 'वफ़ा'
ग़ैर-अज़-ख़ुदा न याद रहे कुछ ख़ुदा करे