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मुमकिन नहीं दवा है इस आज़ार के लिए | शाही शायरी
mumkin nahin dawa hai is aazar ke liye

ग़ज़ल

मुमकिन नहीं दवा है इस आज़ार के लिए

जमीला ख़ुदा बख़्श

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मुमकिन नहीं दवा है इस आज़ार के लिए
बेहतर है मौत आशिक़-ए-बीमार के लिए

मर कर हुआ हूँ ख़ाक दर-ए-यार के लिए
साया बना हूँ मैं तिरी दीवार के लिए

दाम-ए-बला-ए-हस्ती-ए-मौहूम में फँसा
बेहतर यही सज़ा थी गुनहगार के लिए

क्यूँकर रक़ीब आएँ न महफ़िल में आप की
है ख़ार गुल के वास्ते गुल ख़ार के लिए

पा-बोसियों के शौक़ में अपना ये लौह-ए-दिल
इक ख़ाल बन गया क़दम-ए-यार के लिए

जल्वा दिखा दे ख़्वाब में बहर-ए-ख़ुदा मुझे
आँखें तरस गईं तिरे दीदार के लिए

बच्चों की तरह हम ने इस आग़ोश-ए-नाज़ में
पाला था दिल को तुझ से दिल-आज़ार के लिए

अब शैख़-ओ-बरहमन मिरे दामन के तार को
आते हैं लेने सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार के लिए

मूनिस जो एक दिल था वो घुल कर फ़िराक़ से
आँसू बना है चश्म-ए-गुहर-बार के लिए

उस रुख़ को देखते ही दिल-ए-ज़ार ने कहा
ज़ेबा है ग़ाज़ा ऐसा ही रुख़्सार के लिए

क्या हाल-ए-दिल सुनाऊँ 'जमीला' कि ज़ोफ़ से
क़ुव्वत ज़बाँ में चाहिए इज़हार के लिए