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मुल्ज़िम ठहरी मैं अपनी सच्चाई से | शाही शायरी
mulzim Thahri main apni sachchai se

ग़ज़ल

मुल्ज़िम ठहरी मैं अपनी सच्चाई से

शगुफ़्ता यासमीन

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मुल्ज़िम ठहरी मैं अपनी सच्चाई से
झूट ने बाज़ी मार ली पाई पाई से

हक़-तलफ़ी भी ख़ामोशी से सह जाएँ
फ़ैसला करना मुश्किल है दानाई से

उस को सोचते रहना अच्छा लगता है
कैसा नाता जुड़ गया उस हरजाई से

बदले में वो साँसें गिरवी रख लेगा
बच के रहना आज के हातिम-ताई से

कोई मुझ में रहता है मुझ से छुप कर
डर नहीं लगता अब अपनी तन्हाई से

भूले से आ जाए वो छत पर इक दिन
चाँद को देखूँ मैं अपनी अँगनाई से

ताज़ा-दम रखती है तेरी ख़ुश्बू ही
मुझ को निस्बत क्या गुलशन-आराई से

फूल से लहजे ज़ख़्म जहाँ देते हैं ग़ज़ल
डरती हूँ ऐसी इज़्ज़त-अफ़ज़ाई से