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मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो | शाही शायरी
mukh-phaT munh pe khaenge talwar ho so ho

ग़ज़ल

मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
दबने के भी तो उस से नहीं यार हो सो हो

जाना मुझे भी अब तरफ़-ए-यार हो सो हो
या बोले या बताए वो धुत्कार हो सो हो

सय्याद को तो ख़्वाब-ए-तग़ाफ़ुल से काम है
अहवाल-ए-ताइरान-ए-गिरफ़्तार हो सो हो

सौदाई बन के उस पे मुझे हाथ डालना
हंगामा इस में जो सर-ए-बाज़ार हो सो हो

जी पर यही ठनी है तो आज उस को छेड़ कर
खानी मुझे भी गालियाँ दो चार हो सो हो

गो इस में हाथा-पाई भी हो जावे डर नहीं
लूँगा मैं उस का बोसा-ए-रुख़्सार हो सो हो

मुझ को भी काटनी क़फ़स अपने की तीलियाँ
या टूटे या बचे मिरी मिन्क़ार हो सो हो

शिकवा कभी न यार का लावेंगे मुँह पे हम
हम पर जफ़ा-ए-चर्ख़-ए-सितम-गार हो सो हो

अपनी शिफ़ा को अपने ख़ुदा पर तू छोड़ दे
आख़िर तो मौत है दिल-ए-बीमार हो सो हो

मानी शबीह-ए-यार पे मत आप को मिटा
लूँगा बना मैं तुझ से जो तय्यार हो सो हो

ऐ दिल! तू सादा-रूयों की भपकी में आ न जा
इक दिन लिपट के छीन ले तलवार हो सो हो

सर फोड़ कर के जाएँगे उस की गली में हम
रंगेंगे ख़ून से दर-ओ-दीवार हो सो हो

सनआँ की तरह इक बुत-ए-काफ़िर के इश्क़ में
काफ़िर हो बाँधना हमें ज़ुन्नार हो सो हो

लेनी मता-ए-हुस्न हमें इस में ताजिरो!
नुक़सान-ए-जान-ओ-माल-ए-दिल-ए-ज़ार हो सो हो

शोख़ी है तेरी तब्अ में शिद्दत से 'मुसहफ़ी'
ले भाग सर से शैख़ के दस्तार हो सो हो