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मुझे मिला वो बहारों की सरख़ुशी के साथ | शाही शायरी
mujhe mila wo bahaaron ki sarKHushi ke sath

ग़ज़ल

मुझे मिला वो बहारों की सरख़ुशी के साथ

सहबा अख़्तर

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मुझे मिला वो बहारों की सरख़ुशी के साथ
गुल-ओ-समन से ज़ियादा शगुफ़्तगी के साथ

वो रात चश्मा-ए-ज़ुल्मात पर गुज़ारी थी
वो जब तुलूअ' हुआ मुझ पे रौशनी के साथ

अगर शुऊ'र न हो तो बहिश्त है दुनिया
बड़े अज़ाब में गुज़री है आगही के साथ

ये इत्तिफ़ाक़ हैं सब राह की मसाफ़त के
चले किसी के लिए जा मिले किसी के साथ

बुरा नहीं है मगर हस्ब-ए-तिश्नगी भी कहाँ
सुलूक-ए-शहद-लबाँ मेरी तिश्नगी के साथ

फ़ज़ा में रक़्स है 'सहबा' हसीं परिंदों का
मुझे भी हसरत-ए-परवाज़ है किसी के साथ