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मुझे ख़ुद से भी खटका सा लगा था | शाही शायरी
mujhe KHud se bhi khaTka sa laga tha

ग़ज़ल

मुझे ख़ुद से भी खटका सा लगा था

अनवर मसूद

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मुझे ख़ुद से भी खटका सा लगा था
मिरे अंदर भी इक पहरा लगा था

अभी आसार से बाक़ी हैं दिल में
कभी इस शहर में मेला लगा था

जुदा होगी कसक दिल से न उस की
जुदा होते हुए अच्छा लगा था

इकट्ठे हो गए थे फूल कितने
वो चेहरा एक बाग़ीचा लगा था

पिए जाता था 'अनवर' आँसुओं को
अजब उस शख़्स को चसका लगा था