मुझे ख़ुद से भी खटका सा लगा था
मिरे अंदर भी इक पहरा लगा था
अभी आसार से बाक़ी हैं दिल में
कभी इस शहर में मेला लगा था
जुदा होगी कसक दिल से न उस की
जुदा होते हुए अच्छा लगा था
इकट्ठे हो गए थे फूल कितने
वो चेहरा एक बाग़ीचा लगा था
पिए जाता था 'अनवर' आँसुओं को
अजब उस शख़्स को चसका लगा था

ग़ज़ल
मुझे ख़ुद से भी खटका सा लगा था
अनवर मसूद