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मुझे ग़रज़ है सितारे न माहताब के साथ | शाही शायरी
mujhe gharaz hai sitare na mahtab ke sath

ग़ज़ल

मुझे ग़रज़ है सितारे न माहताब के साथ

रहमान फ़ारिस

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मुझे ग़रज़ है सितारे न माहताब के साथ
चमक रहा है ये दिल पूरी आब-ओ-ताब के साथ

नपी-तुली सी मोहब्बत लगा बँधा सा करम
निभा रहे हो तअ'ल्लुक़ बड़े हिसाब के साथ

मैं इस लिए नहीं थकता तिरे तआक़ुब से
मुझे यक़ीं है कि पानी भी है सराब के साथ

सवाल-ए-वस्ल पे इंकार करने वाले सुन
सवाल ख़त्म नहीं होगा इस जवाब के साथ

ख़मोश झील के पानी में वो उदासी थी
कि दिल भी डूब गया रात माहताब के साथ

जता दिया कि मोहब्बत में ग़म भी होते हैं
दिया गुलाब तो काँटे भी थे गुलाब के साथ

मैं ले उड़ूँगा तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से ता'बीर
न देख मेरी तरफ़ चश्म-ए-नीम-ख़्वाब के साथ

अरे ये सिर्फ़ बहाना है बात करने का
मिरी मजाल कि झगड़ा करूँ जनाब के साथ

विसाल-ओ-हिज्र की सरहद पे झुटपुटे में कहीं
वो बे-हिजाब हुआ था मगर हिजाब के साथ

शिकस्ता आइना देखा फिर अपना दिल देखा
दिखाई दी मुझे ताबीर-ए-ख़्वाब ख़्वाब के साथ

वहाँ मिलूँगा जहाँ दोनों वक़्त मिलते हैं
मैं कम-नसीब तिरे जैसे कामयाब के साथ

दयार-ए-हिज्र के रोज़ा-गुज़ार चाहते हैं
कि रोज़ा खोलें तिरे और शराब-ए-नाब के साथ

तुम अच्छी दोस्त हो सो मेरा मशवरा ये है
मिला-जुला न करो 'फ़ारिस'-ए-ख़राब के साथ