मुझे छेड़ने को साक़ी ने दिया जो जाम उल्टा
तो किया बहक के मैं ने उसे इक सलाम उल्टा
सहर एक माश फेंका मुझे जो दिखा के उन ने
तो इशारा मैं ने ताड़ा कि है लफ़्ज़-ए-शाम उल्टा
ये बला धुआँ नशा है मुझे इस घड़ी तो साक़ी
कि नज़र पड़े है सारा दर-ओ-सहन-ओ-बाम उल्टा
बढ़ूँ उस गली से क्यूँकर कि वहाँ तो मेरे दिल को
कोई खींचता है ऐसा कि पड़े है गाम उल्टा
दर-ए-मय-कदा से आई महक ऐसी ही मज़े की
कि पिछाड़ खा गिरा वाँ दिल-ए-तिश्ना-काम उल्टा
नहीं अब जो देते बोसा तो सलाम क्यूँ लिया था
मुझे आप फेर दीजे वो मिरा सलाम उल्टा
लगे कहने आब माया तुझे हम कहा करेंगे
कहीं उन के घर से बढ़ कर जो फिरा ग़ुलाम उल्टा
मुझे क्यूँ न मार डाले तिरी ज़ुल्फ़ उलट के काफ़िर
कि सिखा रखा है तू ने उसे लफ़्ज़-ए-राम उल्टा
निरे सीधे-सादे हम तो भले आदमी हैं यारो
हमें कज जो समझे सो ख़ुद वलद-उल-हराम उल्टा
तू जो बातों में रुकेगा तो ये जानूँगा कि समझा
मिरे जान-ओ-दिल के मालिक ने मिरा कलाम उल्टा
फ़क़त इस लिफ़ाफ़े पर है कि ख़त आश्ना को पहुँचे
तो लिखा है उस ने 'इंशा' ये तिरा ही नाम उल्टा
ग़ज़ल
मुझे छेड़ने को साक़ी ने दिया जो जाम उल्टा
इंशा अल्लाह ख़ान