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मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है | शाही शायरी
mujhe ai ahl-e-kaba yaad kya mai-KHana aata hai

ग़ज़ल

मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है

दाग़ देहलवी

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मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है
उधर दीवाना जाता है इधर मस्ताना आता है

मिरी मिज़्गाँ से आँसू पोछता है किस लिए नासेह
टपक पड़ता है ख़ुद जो इस शजर में दाना आता है

ये आमद है कि आफ़त है निगह कुछ है अदा कुछ है
इलाही ख़ैर मुझ से आश्ना बेगाना आता है

दम-ए-तक़रीर नाले हल्क़ में छुरियाँ चुभोते हैं
ज़बाँ तक टुकड़े हो हो कर मिरा अफ़्साना आता है

रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ' रख कर वो ये कहते हैं
उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है

जिगर तक आते आते सौ जगह गिरता हुआ आया
तिरा तीर-ए-नज़र आता है या मस्ताना आता है

वही झगड़ा है फ़ुर्क़त का वही क़िस्सा है उल्फ़त का
तुझे ऐ 'दाग़' कोई और भी अफ़्साना आता है