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मुझ सीं ग़म दस्त-ओ-गरेबाँ न हुआ था सो हुआ | शाही शायरी
mujh sin gham dast-o-gareban na hua tha so hua

ग़ज़ल

मुझ सीं ग़म दस्त-ओ-गरेबाँ न हुआ था सो हुआ

सिराज औरंगाबादी

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मुझ सीं ग़म दस्त-ओ-गरेबाँ न हुआ था सो हुआ
चाक सीने का नुमायाँ न हुआ था सो हुआ

अब तलक मुझ कूँ किसी शख़्स के चेहरा का ख़याल
सूरत-ए-आइना-ए-जाँ न हुआ था सो हुआ

सफ़-ए-उश्शाक़ में कोई सानी-ए-मजनूँ मुझ सा
वहशी-ए-कोह-ओ-बयाबाँ न हुआ था सो हुआ

अश्क ओले हो बरसते हैं मिरे दामन में
ये वरक़ नुक़रा-ए-अफ़्शाँ न हुआ था सो हुआ

ख़ंजर-ए-इश्क़ ने एहसान किया सर पे मिरे
जान कंदन कभी आसाँ न हुआ था सो हुआ

क़िबला-रू रहम किया मुझ पे ख़त-आग़ाज़ी में
काफ़िर-ए-हिन्द मुसलमाँ न हुआ था सो हुआ

आह-ए-सोज़ाँ सीं मिरे दामन-ए-सहरा में 'सिराज'
क़ब्र-ए-मजनूँ पे चराग़ाँ न हुआ था सो हुआ