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मुझ क़ब्र से यार क्यूँके जावे | शाही शायरी
mujh qabr se yar kyunke jawe

ग़ज़ल

मुझ क़ब्र से यार क्यूँके जावे

वली उज़लत

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मुझ क़ब्र से यार क्यूँके जावे
है शम-ए-मज़ार क्यूँके जावे

रहता है रक़ीब नित तेरे संग
छाती का पहाड़ क्यूँके जावे

हैराँ हुए बस-कि मुँह तेरा देख
गुलशन से बहार क्यूँके जावे

है हिज्र की रात सनसनाती
नागिन से फुंकार क्यूँके जावे

नित है मिरा कीना उस के दिल में
पत्थर से शरार क्यूँके जावे

किस वज्ह उठे वो मुँह से ये दिल
गुलशन से हज़ार क्यूँके जावे

गुलज़ार को फ़स्ल-ए-गुल में आशिक़
पय लाला-ए-दाग़-दार क्यूँके जावे

है बज़्म बुतों से शैख़ महरूम
जन्नत में हिमार क्यूँके जावे

मुँह से तेरे सरके ज़ुल्फ़ किस वज्ह
गुलज़ार से मार क्यूँके जावे

क्यूँकर करूँ ज़ब्त-ए-आह क़ातिल
घायल से पुकार क्यूँके जावे

जीता है उसी गली में 'उज़लत'
जब जी दिया हार क्यूँके जावे