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मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो | शाही शायरी
mujh pe aisa koi sher nazil na ho

ग़ज़ल

मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो

सहबा अख़्तर

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मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो
जिस की हिद्दत मिरे ख़ूँ में शामिल न हो

फ़िक्र ऐसे मुहीत-ए-सुख़न की करो
जिस की अमवाज का कोई साहिल न हो

आज इक बिन्त-ए-मरियम है आग़ोश में
मुझ पे ऐ रूह-ए-क़ुद्स आज नाज़िल न हो

बे-मुहाबा मिले हिज्र हो बा-विसाल
कोई दीवार रस्ते में माइल न हो

शाख़ पर है गुमाँ गुल से अंदेशा है
ये भी ख़ंजर न हो ये भी क़ातिल न हो

कारवान-ए-जुनूँ दे रहा है सदा
जाँ हो प्यारी जिसे हम में शामिल न हो

काश वो वक़्त भी आए दुनिया में जब
ज़र पुकारे मगर कोई साइल न हो

मेरी तन्हाई को मेरा मक़्सूम कर
मेरी मंज़िल ज़माने की मंज़िल न हो

हुक्म दे जान-ए-'सहबा' नई फ़िक्र का
ये ग़ज़ल भी अगर तेरे क़ाबिल न हो