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मुझ पर ऐ महरम-ए-जाँ पर्दा-ए-असरार कूँ खोल | शाही शायरी
mujh par ai mahram-e-jaan parda-e-asrar kun khol

ग़ज़ल

मुझ पर ऐ महरम-ए-जाँ पर्दा-ए-असरार कूँ खोल

सिराज औरंगाबादी

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मुझ पर ऐ महरम-ए-जाँ पर्दा-ए-असरार कूँ खोल
ख़्वाब-ए-ग़फ़लत सें उठा दीदा-ए-बेदार कूँ खोल

दिल कूँ अब दामन-ए-सहरा-ए-जुनूँ याद आया
अक़्ल के दाम सें उस सैद-ए-गिरफ़्तार कूँ खोल

ऐ नसीम-ए-सहरी बू-ए-मोहब्बत ले आ
तुर्रा-ए-यार सती इत्र की महकार कूँ खोल

आरज़ू है मिरी आँखों सें रवाँ होएं आँसू
नश्तर-ए-ग़म सें रग-ए-अब्र-ए-गुहर-बार कूँ खोल

मैं ख़रीदार हूँ दे जिंस-ए-जुनूँ ख़ातिर-ख़्वाह
ऐ ग़म-ए-क़ाफ़िला-सालार टुक इस बार कूँ खोल

क़फ़स-ए-ग़म में दिल-अफ़सुर्दा रहूँगा कब तक
नग़्मा-ए-शौक़ सें मेरे लब-ए-गुफ़्तार कूँ खोल

क़िस्सा-ए-दर्द कूँ अंजाम नहीं मिस्ल-ए-'सिराज'
ग़म के दफ़्तर कूँ लपेट आह के तूमार कूँ खोल