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मुझ को ये जान-ओ-दिल क़ुबूल नग़्मे को नग़्मा ही समझ | शाही शायरी
mujhko ye jaan-o-dil qubul naghme ko naghma hi samajh

ग़ज़ल

मुझ को ये जान-ओ-दिल क़ुबूल नग़्मे को नग़्मा ही समझ

ख़ुमार बाराबंकवी

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मुझ को ये जान-ओ-दिल क़ुबूल नग़्मे को नग़्मा ही समझ
साज़ ये बीतती है क्या ये भी कभी कभी समझ

इश्क़ है तिश्नगी का नाम तोड़ दे गर मिले भी जाम
शिद्दत-ए-तिश्नगी न देख लज़्ज़त-ए-तिश्नगी समझ

हुस्न की मेहरबानियाँ इश्क़ के हक़ में ज़हर हैं
हुस्न के इज्तिनाब तक इश्क़ की ज़िंदगी समझ

तर्क-ए-तअल्लुक़ात भी ऐन-ए-तअ'ल्लुक़ात है
आग बुझी हुई न जान आग दबी हुई समझ

अक़्ल के कारोबार में दिल को भी रख शरीक-ए-कार
दिल के मुआ'मलात में अक़्ल को अजनबी समझ

ग़ुंचा-ओ-गुल के साथ साथ दिल की तरफ़ भी इक नज़र
शेफ़्ता-ए-शगुफ़्तगी वज्ह-ए-शगुफ़्तगी समझ

ऐसे भी राज़ हैं 'ख़ुमार' होते नहीं जो आश्कार
अपनी ही मुश्किलें न देख उन की भी बेबसी समझ