मुझ को ये जान-ओ-दिल क़ुबूल नग़्मे को नग़्मा ही समझ
साज़ ये बीतती है क्या ये भी कभी कभी समझ
इश्क़ है तिश्नगी का नाम तोड़ दे गर मिले भी जाम
शिद्दत-ए-तिश्नगी न देख लज़्ज़त-ए-तिश्नगी समझ
हुस्न की मेहरबानियाँ इश्क़ के हक़ में ज़हर हैं
हुस्न के इज्तिनाब तक इश्क़ की ज़िंदगी समझ
तर्क-ए-तअल्लुक़ात भी ऐन-ए-तअ'ल्लुक़ात है
आग बुझी हुई न जान आग दबी हुई समझ
अक़्ल के कारोबार में दिल को भी रख शरीक-ए-कार
दिल के मुआ'मलात में अक़्ल को अजनबी समझ
ग़ुंचा-ओ-गुल के साथ साथ दिल की तरफ़ भी इक नज़र
शेफ़्ता-ए-शगुफ़्तगी वज्ह-ए-शगुफ़्तगी समझ
ऐसे भी राज़ हैं 'ख़ुमार' होते नहीं जो आश्कार
अपनी ही मुश्किलें न देख उन की भी बेबसी समझ
ग़ज़ल
मुझ को ये जान-ओ-दिल क़ुबूल नग़्मे को नग़्मा ही समझ
ख़ुमार बाराबंकवी

