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मुझ को समझो यादगार-ए-रफ़्तगान-ए-लखनऊ | शाही शायरी
mujhko samjho yaadgar-e-raftagan-e-lucknow

ग़ज़ल

मुझ को समझो यादगार-ए-रफ़्तगान-ए-लखनऊ

नज़्म तबा-तबाई

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मुझ को समझो यादगार-ए-रफ़्तगान-ए-लखनऊ
हूँ क़द-ए-आदम ग़ुबार-ए-कारवान-ए-लखनऊ

ख़ून-ए-हसरत कह रहा है दास्तान-ए-लखनऊ
रह गया है अब यही रंगीं-बयान-ए-लखनऊ

गोश-ए-इबरत से सुने कोई मिरी फ़रियाद है
बुलबुल-ए-ख़ूनीं नवा-ए-बोस्तान-ए-लखनऊ

मेरे हर आँसू में इक आईना-ए-तस्वीर है
मेरे हर नाले में है तर्ज़-ए-फ़ुग़ान-ए-लखनऊ

ढूँढता है अब किसे ले कर चराग़-ए-आफ़्ताब
क्यूँ मिटाया ऐ फ़लक तू ने निशान-ए-लखनऊ

लखनऊ जिन से इबारत थी हुए वो नापदीद
है निशान-ए-लखनऊ बाक़ी न शान-ए-लखनऊ

अब नज़र आता नहीं वो मजमा-ए-अहल-ए-कमाल
खा गए उन को ज़मीन-ओ-आसमान-ए-लखनऊ

पहले था अहल-ए-ज़बाँ का दौर अब गर्दिश में हैं
चाहिए थी तेग़-ए-उर्दू को फ़सान-ए-लखनऊ

मर्सिया-गो कितने यकता-ए-ज़माना थे यहाँ
कोई तो इतनों में होता नौहा-ख़्वान-ए-लखनऊ

ये ग़ुबार-ए-ना-तावाँ ख़ाकिस्तर-ए-परवाना है
ख़ानदान अपना था शम्-ए-दूदमान-ए-लखनऊ

चलता था जब घुटनियों अपने यहाँ तिफ़्ल-ए-रज़ीअ'
सज्दा करते थे उसे गर्दन-कुशान-ए-लखनऊ

अहद-ए-पीराना-सरी में क्यूँ न शीरीं हो सुख़न
बचपने में मैं ने चूसी है ज़बान-ए-लखनऊ

गुलशन-ए-फ़िरदौस पर क्या नाज़ है रिज़वाँ तुझे
पूछ उस के दिल से जो है रुत्बा-दान-ए-लखनऊ

बू-ए-उन्स आती है 'हैदर' ख़ाक-ए-मटिया-बुर्ज से
जम्अ' हैं इक जा वतन-आवारगान-ए-लखनऊ