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मुझ को मजबूर-ए-सर-कशी कहिए | शाही शायरी
mujhko majbur-e-sar-kashi kahiye

ग़ज़ल

मुझ को मजबूर-ए-सर-कशी कहिए

उरूज ज़ैदी बदायूनी

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मुझ को मजबूर-ए-सर-कशी कहिए
आप अँधेरे को रौशनी कहिए

उन से बछड़ा तो इस अज़ाब में हूँ
मौत कहिए कि ज़िंदगी कहिए

सर-ए-साहिल भी लोग प्यासे हैं
इस को आशोब-ए-तिश्नगी कहिए

क्यूँ तजाहुल को आरिफ़ाना कहूँ
मेरे चेहरे को अजनबी कहिए

चार दिन की है चाँदनी लेकिन
चाँदनी है तो चाँदनी कहिए

मौत भी ज़िंदगी का इक रुख़ है
इस को मेआ'र-ए-आगही कहिए

ग़म से हम बे-मज़ा नहीं होते
लज़्ज़त-ए-ग़म को चाशनी कहिए

मुझ को बख़्शी है फ़िक्र-ए-अर्ज़-ओ-समा
दोस्त की बंदा-परवरी कहिए

जलता-बुझता ये किर्मक-ए-शब-ताब
उस को पुर-कार-ए-सादगी कहिए

मुझ को मुड़ मुड़ के देखने वाले
क्या इसे तर्ज़-ए-बे-रुख़ी कहिए

धूप में साथ साथ साया है
रौशनी में भी तीरगी कहिए

रहबरी भी है हम-रकाब-ए-उरूज
उस को फ़ैज़ान-ए-ख़ुद-रवी कहिए