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मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं | शाही शायरी
mujhko dimagh-e-shewan-o-ah-o-fughan nahin

ग़ज़ल

मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

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मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं
इक आतिश-ए-ख़मोश हूँ जिस में धुआँ नहीं

किस सादगी से कहते हो हम राज़-दाँ नहीं
वो कौन सा है राज़ जो तुम पर अयाँ नहीं

वो दुश्मन-ए-सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ यही न हो
मा'सूम सी निगाह कि जिस पर गुमाँ नहीं

है आग सी लगी हुई रग रग में क्या कहूँ
इक चश्म-ए-इन्तिज़ार ही याँ ख़ूँ-चकाँ नहीं

यूँ देखता हूँ बर्क़ को अल्लाह रे बे-दिली
जैसे कहीं चमन में मिरा आशियाँ नहीं

इस चश्म-ए-नाज़ की कोई देखे फ़ुसूँ-गरी
बार-ए-हयात भी मुझे अब तो गराँ नहीं

ऐ मस्त-ए-नाज़ मश्क़-ए-सितम इस से भी सिवा
ऐ ज़ौक़-ए-दर्द हैफ़ अगर जावेदाँ नहीं

ऐ दिल सर-ए-नियाज़ को क्या क़ैद-ए-संग-ओ-दर
का'बा ही क्या बुरा है जो वो आस्ताँ नहीं

की फ़ुर्सत-ए-हयात तिरी जुस्तुजू में सिर्फ़
ऐ वाए गर हनूज़-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं