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मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर | शाही शायरी
mujhko dayar-e-ghair mein mara watan se dur

ग़ज़ल

मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर

मिर्ज़ा ग़ालिब

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मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर
रख ली मिरे ख़ुदा ने मिरी बेकसी की शर्म

वो हल्क़ा-हा-ए-ज़ुल्फ़ कमीं में हैं या ख़ुदा
रख लीजो मेरे दावा-ए-वारस्तगी की शर्म