मुग़न्नियों को बुलाओ कि नींद आ जाए
कहो वो गीत सुनाओ कि नींद आ जाए
चले भी आओ मिरे जीते-जी अब इतना भी
न इंतिज़ार बढ़ाओ कि नींद आ जाए
चराग़-ए-उम्र-ए-गुज़शता बुझा दिया किस ने
वही चराग़ जलाओ कि नींद आ जाए
हक़ीक़तों ने तो खुल खुल के नींद उड़ा दी है
नए तिलिस्म बनाओ कि नींद आ जाए
सुकूँ-नसीबो इधर आओ और कोई तदबीर
ज़रा हमें भी बताओ कि नींद आ जाए
बड़ी तवील है 'महशर' किसी के हिज्र की बात
कोई ग़ज़ल ही सुनाओ कि नींद आ जाए
ग़ज़ल
मुग़न्नियों को बुलाओ कि नींद आ जाए
महशर इनायती