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मुग़न्नियों को बुलाओ कि नींद आ जाए | शाही शायरी
mughanniyon ko bulao ki nind aa jae

ग़ज़ल

मुग़न्नियों को बुलाओ कि नींद आ जाए

महशर इनायती

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मुग़न्नियों को बुलाओ कि नींद आ जाए
कहो वो गीत सुनाओ कि नींद आ जाए

चले भी आओ मिरे जीते-जी अब इतना भी
न इंतिज़ार बढ़ाओ कि नींद आ जाए

चराग़-ए-उम्र-ए-गुज़शता बुझा दिया किस ने
वही चराग़ जलाओ कि नींद आ जाए

हक़ीक़तों ने तो खुल खुल के नींद उड़ा दी है
नए तिलिस्म बनाओ कि नींद आ जाए

सुकूँ-नसीबो इधर आओ और कोई तदबीर
ज़रा हमें भी बताओ कि नींद आ जाए

बड़ी तवील है 'महशर' किसी के हिज्र की बात
कोई ग़ज़ल ही सुनाओ कि नींद आ जाए