मुफ़्लिसी सब बहार खोती है
मर्द का ए'तिबार खोती है
क्यूँके हासिल हो मुज को जमइय्यत
ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है
हर सहर शोख़ की निगह की शराब
मुझ अँखाँ का ख़ुमार खोती है
क्यूँके मिलना सनम का तर्क करूँ
दिलबरी इख़्तियार खोती है
ऐ 'वली' आब उस परी-रू की
मुझ सिने का ग़ुबार खोती है
ग़ज़ल
मुफ़्लिसी सब बहार खोती है
वली मोहम्मद वली