मुद्दत हुई है मदह-ए-हसीनाँ किए हुए
नूर-ए-रसन से दिल को चराग़ाँ किए हुए
अर्सा हुआ है वस्फ़-ए-बहार-ए-जमाल से
रू-ए-वरक़ को रश्क-ए-गुलिस्ताँ किए हुए
बरसों हुए हैं तज़किरा-ए-सोज़-ए-इश्क़ से
बज़्म-ए-सुख़नवरी को दरख़्शाँ किए हुए
आता है किस शिकोह से वो रश्क-ए-आफ़्ताब
ज़ुल्मत-कदे दिलों के चराग़ाँ किए हुए
जाता हूँ कू-ए-यार को देख ऐ घटा मुझे
बरपा हुजूम-ए-अश्क से तूफ़ाँ किए हुए
बैठे हैं हम तसव्वुर-ए-गेसू-ए-यार में
इस ज़िंदगी को ख़्वाब-ए-परेशाँ किए हुए
ख़ूँ कर के ले चला हूँ दिल-ओ-जाँ को अपने साथ
दीदार-ए-रू-ए-यार का सामाँ किए हुए
मर मिटिए उस अदा पे कि कुछ लोग जल-बुझे
सीने में सोज़-ए-इश्क़ को पिन्हाँ किए हुए
वो नौ-बहार-ए-हुस्न अभी इस राह से गया
हर नक़्श-ए-पा को रौज़ा-ए-रिज़वाँ किए हुए
ग़ज़ल
मुद्दत हुई है मदह-ए-हसीनाँ किए हुए
वहीदुद्दीन सलीम