मुड़ के देखूँ तो नहीं कोई मगर लगता है
एक साया सा पस-ए-गर्द-ए-सफ़र लगता है
कान धरता हूँ तो होती है समाअ'त मजरूह
अपनी ही ख़्वाहिश-ए-बे-बाक से डर लगता है
इस तमाशे से निकल पाँव तो घर भी देखूँ
ये तमाशा जो सर-ए-राहगुज़र लगता है
नींद आ जाए तो फिर धूप न साया कोई
पाँव थक जाएँ तो परदेस भी घर लगता है
आँख उठाता हूँ तो है राह में हाइल दीवार
पाँव रखता हूँ तो दीवार में दर लगता है
क्या क़यामत है कि आता है न जाता है कोई
इक हयूला पस-ए-दीवार मगर लगता है
बात करता हूँ तो मख़मूर सा हो जाता हूँ
उस की बातों में 'ज़िया' मय का असर लगता है

ग़ज़ल
मुड़ के देखूँ तो नहीं कोई मगर लगता है
ज़िया फ़ारूक़ी