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मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का | शाही शायरी
mohtaj nahin qafila aawaz-e-dara ka

ग़ज़ल

मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम

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मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
सीधी है रह-ए-बुत-कदा एहसान ख़ुदा का

गर है सर-ए-दरयूज़ा-ए-फ़ैज़ अहल-ए-नज़र से
हो राह-नशीं मरहला-ए-फ़क़्र फ़ना का

ख़ुश-नूदी-ए-माशूक़ है रंजूर है आशिक़
बे-दर्द है वो ख़स्ता कि ले नाम दवा का

इस बाग़ की निकहत का हूँ मुश्ताक़ कि हो जाए
जाते हुए दम बंद जहाँ बाद-ए-सबा का

कोई नहीं कहता कि ये किस का है करिश्मा
इक शोर है ईसा के दम-ए-रूह-फ़ज़ा का

झाड़ें तिरे उश्शाक़ उसे गर्द समझ कर
पड़ जाए अगर सर पे कभी साया हुमा का

तन फ़र्त-ए-लताफ़त से हो जब रूह-ए-मुजस्सम
क्या ज़ोर चले कश्मकश-ए-बंद-ए-क़बा का

कब कालबुद-ए-ख़ाक में हो इतनी नज़ाकत
जो बुत है वो पुतला है मगर नाज़-ओ-अदा का

यूँ क़त्ल करे ग़मज़ा-ए-दिलदार कहें क्या
जौहर न कहें गर मिज़ा कि तेग़-ए-क़ज़ा का

क्या दाने की ख़्वाहिश कि है तासीर कि जिस से
होता है गुज़र दाम में मुर्ग़ान-ए-हवा का

असरार हक़ीक़त का हो अशआ'र में शारेह
क्या हौसला है 'नाज़िम'-ए-आशुफ़्ता-नवा का