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मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं | शाही शायरी
mohabbat ne kya kya na aanen nikalin

ग़ज़ल

मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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मोहब्बत ने किया क्या न आनें निकालीं
कि तार-ए-क़लम ने ज़बानें निकालीं

हुआ हाथ उस का लहू से हिनाई
ज़ि-बस उस ने कुश्तों की जानें निकालीं

वो लड़का था जब तक ये सज-धज कहाँ थी
जवाँ होते ही उस ने शानें निकालीं

लगा तीर सा आ के 'मानी' के दिल पर
जब इन अबरुओं की कमानें निकालीं

शुबह का गुमाँ था न यारों को जिस जा
मैं वाँ लाल ओ गौहर की कानें निकालीं

फिसल ही गया क्लिक-ए-तस्वीर-ए-'मानी'
कमर खींच कर जूँही रानें निकालीं

ज़हे क्लिक-ए-सनअत कि जिस ने ज़मीं पर
बहारें बनाईं ख़ज़ानें निकालीं

गला डोक में गरचे था 'मुसहफ़ी' का
पर उस पर भी दो-चार तानें निकालीं