मोहब्बत में सहर ऐ दिल बराए नाम आती है
ये वो मंज़िल है जिस मंज़िल में अक्सर शाम आती है
सफ़ीना जिस जगह डूबा था मेरा बहर-ए-उल्फ़त में
वहाँ हर मौज अब तक लरज़ा-बर-अंदाम आती है
न जाने क्यूँ दिल-ए-ग़म आश्ना को देख लेता हूँ
जहाँ कानों में आवाज़-ए-शिकस्त-ए-जाम आती है
दिल-ए-नादाँ यही रंगीं अदाएँ लूट लेती हैं
शफ़क़ की सुर्ख़ियों ही में तो छुप कर शाम आती है
मोहब्बत ने हर इक से बे-तअल्लुक़ कर दिया मुझ को
तुम्हारी याद भी अब तो बराए नाम आती है
न जाने कौन सी महफ़िल में अब तुम जल्वा-फ़रमा हो
नज़र रह रह के उठती है मगर नाकाम आती है
ग़म-ए-दौराँ से मिल जाती है थोड़ी देर को फ़ुर्सत
तसव्वुर में जहाँ इक जन्नत-ए-बेनाम आती है
बदल सकता हूँ उस का रुख़ मगर ये सोच कर चुप हूँ
तुम्हारा नाम ले कर गर्दिश-ए-अय्याम आती है
लरज़ उठते हैं कौनैन ऐ 'मुशीर' अंजाम-ए-उल्फ़त पर
जबीन-ए-शौक़ उस के दर से जब नाकाम आती है
ग़ज़ल
मोहब्बत में सहर ऐ दिल बराए नाम आती है
मुशीर झंझान्वी