मोहब्बत में निगाह-ए-शर्मगीं जीने नहीं देती
फ़लक बदनाम है लेकिन ज़मीं जीने नहीं देती
हयात-ओ-मौत की ये कश्मकश भी इक तमाशा है
कि हाँ मरने नहीं देती नहीं जीने नहीं देती
वो कहते हैं मिरे नक़्श-ए-क़दम की क्या ख़ता उस में
जो तुझ को तेरी आवारा जबीं जीने नहीं देती
रहूँ गुलशन में या सहरा में दीवाना ही कहती है
ये दुनिया कैसी दुनिया है कहीं जीने नहीं देती
जुनूँ कहता है कोई तार भी बाक़ी न रह जाए
ख़िरद को फ़िक्र-ए-जेब-ओ-आस्तीं जीने नहीं देती
मुबारक नाला-ए-मज़लूम वो ज़ालिम पुकार उट्ठा
अरे अब तेरी आह-ए-आतिशीं जीने नहीं देती
अमल की क़ुव्वतें हैं ताबे-ए-होश-ओ-ख़िरद 'नाज़िश'
मुझे मेरी निगाह-ए-दूर-बीं में जीने नहीं देती
ग़ज़ल
मोहब्बत में निगाह-ए-शर्मगीं जीने नहीं देती
नाज़िश सिकन्दरपुरी