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मोहब्बत में आराम सब चाहते हैं | शाही शायरी
mohabbat mein aaram sab chahte hain

ग़ज़ल

मोहब्बत में आराम सब चाहते हैं

दाग़ देहलवी

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मोहब्बत में आराम सब चाहते हैं
मगर हज़रत-ए-'दाग़' कब चाहते हैं

ख़ता क्या है उन की जो उस बुत को चाहा
ख़ुदा चाहता है तो सब चाहते हैं

वही उन का मतलूब ओ महबूब ठहरा
बजा है जो उस की तलब चाहते हैं

मगर आलम-ए-यास में तंग आ कर
ये सामान-ए-आफ़त अजब चाहते हैं

अजल की दुआ हर घड़ी माँगते हैं
ग़म-ओ-दर्द-ओ-रंज-ओ-तअब चाहते हैं

न तफ़रीह-ए-आसाइश-ए-दिल की ख़्वाहिश
न सामान-ए-ऐश-ओ-तरब चाहते हैं

क़यामत बपा हो नुज़ूल-ए-बला हो
यही आज-कल रोज़ ओ शब चाहते हैं

न माशूक़-ए-फ़रख़ार से उन को मतलब
न ये जाम-ए-बिन्तुल-इनब चाहते हैं

न जन्नत की हसरत न हूरों की पर्वा
न कोई ख़ुशी का सबब चाहते हैं

निराली तमन्ना है अहल-ए-करम से
सितम चाहते हैं ग़ज़ब चाहते हैं

न हो कोई आगाह राज़-ए-निहाँ से
ख़मोशी को ये मोहर-ए-लब चाहते हैं

ख़ुदा उन की चाहत से महफ़ूज़ रक्खे
ये आज़ार भी मुंतख़ब चाहते हैं

ग़म-ए-इश्क़ में 'दाग़' मजबूर हो कर
कभी जो न चाहा वो अब चाहते हैं