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मोहब्बत को गले का हार भी करते नहीं बनता | शाही शायरी
mohabbat ko gale ka haar bhi karte nahin banta

ग़ज़ल

मोहब्बत को गले का हार भी करते नहीं बनता

महबूब ख़िज़ां

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मोहब्बत को गले का हार भी करते नहीं बनता
कुछ ऐसी बात है इंकार भी करते नहीं बनता

ख़ुलूस-ए-नाज़ की तौहीन भी देखी नहीं जाती
शुऊर-ए-हुस्न को बेदार भी करते नहीं बनता

तुझे अब क्या कहें ऐ मेहरबाँ अपना ही रोना है
कि सारी ज़िंदगी ईसार भी करते नहीं बनता

सितम देखो कि उस बे-दर्द से अपनी लड़ाई है
जिसे शर्मिंदा-ए-पैकार भी करते नहीं बनता

अदा रंजीदगी परवानगी आँसू-भरी आँखें
अब इतनी सादगी क्या प्यार भी करते नहीं बनता

जवानी मेहरबानी हुस्न भी अच्छी मुसीबत है
उसे अच्छा उसे बीमार भी करते नहीं बनता

भँवर से जी भी घबराता है लेकिन क्या किया जाए
तवाफ़-ए-मौज-ए-कम-रफ़्तार भी करते नहीं बनता

इसी दिल को भरी दुनिया के झगड़े झेलने ठहरे
यही दिल जिस को दुनिया-दार भी करते नहीं बनता

जलाती है दिलों को सर्द-मेहरी भी ज़माने की
सवाल-ए-गर्मी-ए-बाज़ार भी करते नहीं बनता

'ख़िज़ाँ' उन की तवज्जोह ऐसी ना-मुम्किन नहीं लेकिन
ज़रा सी बात पर इसरार भी करते नहीं बनता