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मोहब्बत की सज़ा पाई बहुत है | शाही शायरी
mohabbat ki saza pai bahut hai

ग़ज़ल

मोहब्बत की सज़ा पाई बहुत है

अदील ज़ैदी

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मोहब्बत की सज़ा पाई बहुत है
हमारे ग़म में गीराई बहुत है

खड़ा मेले में अक्सर सोचता हूँ
मिरे अंदर तो तन्हाई बहुत है

नहीं है और कोई सिर्फ़ मैं हूँ
फ़लक से ये सदा आई बहुत है

कमा लें शोहरतें सस्ती सी हम भी
मगर इस में तो रुस्वाई बहुत है

तसव्वुर शर्त सब कुछ सामने है
नज़र वालों को बीनाई बहुत है

'अदील' उस को कहाँ तुम भूल पाए
क़सम गो तुम ने ये खाई बहुत है