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मोहब्बत की सहबा पिलाने चला हूँ | शाही शायरी
mohabbat ki sahba pilane chala hun

ग़ज़ल

मोहब्बत की सहबा पिलाने चला हूँ

क़ैसर निज़ामी

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मोहब्बत की सहबा पिलाने चला हूँ
ज़माने को इंसाँ बनाने चला हूँ

ख़ुशी अहल-ए-गुलशन को ये सुन के होगी
मसर्रत के नग़्मे सुनाने चला हूँ

चराग़-ए-रुख़-ए-मैहर-ओ-अंजुम को ले कर
ज़माने की ज़ुल्मत मिटाने चला हूँ

मिरा हौसला कोई देखे तो आ कर
हरीफ़ों से नज़रें मिलाने चला हूँ

तिरे दर पे शौक़-ए-जबीं-साई ले कर
मुक़द्दर को फिर आज़माने चला हूँ

इलाही ख़िज़ाँ का बदल जाए चेहरा
चमन में शगूफ़े खिलाने चला हूँ

ज़माना भी हो मुत्तफ़िक़ जिस से 'क़ैसर'
मोहब्बत के वो गीत गाने चला हूँ