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मोहब्बत की इंतिहा चाहता हूँ | शाही शायरी
mohabbat ki intiha chahta hun

ग़ज़ल

मोहब्बत की इंतिहा चाहता हूँ

बासित भोपाली

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मोहब्बत की इंतिहा चाहता हूँ
उन्हें हासिल-ए-इब्तिदा चाहता हूँ

उसे बरमला देखना चाहता हूँ
अदब ऐ मोहब्बत ये क्या चाहता हूँ

ग़म-ए-इश्क़ का सिलसिला चाहता हूँ
मैं तुझ तक तिरा वास्ता चाहता हूँ

करम-हा-ए-ना-मुस्तक़िल का गिला क्या
सितम-हा-ए-बे-इंतिहा चाहता हूँ

वो घबरा के जिस पर नज़र डाल ही दें
मैं वो क़ल्ब-ए-शोरिश-अदा चाहता हूँ

करम कीजिए तो करम का हूँ तालिब
सज़ा दीजिए तो सज़ा चाहता हूँ

तिरी याद अच्छी तरह ज़िक्र प्यारा
मगर मैं तुझे देखना चाहता हूँ

तिरे इश्क़ ही से बनी मेरी हस्ती
तिरे इश्क़ ही में मिटा चाहता हूँ

जो ताज़ा करे क़िस्सा-ए-तूर 'बासित'
मैं ऐसा ही इक वाक़िआ चाहता हूँ