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मोहब्बत हट रही है दरमियाँ से | शाही शायरी
mohabbat haT rahi hai darmiyan se

ग़ज़ल

मोहब्बत हट रही है दरमियाँ से

शारिब लखनवी

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मोहब्बत हट रही है दरमियाँ से
ज़मीं टकरा न जाए आसमाँ से

वो मंज़िल सख़्त है हर इम्तिहाँ से
मोहब्बत रुख़ बदलती जहाँ से

हज़ारों माह-ओ-अंजुम हैं तह-ए-ख़ाक
ज़मीं कुछ कम नहीं है आसमाँ से

मुनव्वर हैं अभी तक वो मक़ामात
मैं तेरे साथ गुज़रा हूँ जहाँ से

ज़मीं की पस्तियों में खो गए हैं
ज़मीं टकराने वाले आसमाँ से

मिरी आँखों में आँसू तो बहुत हैं
मगर दामन तिरा लाऊँ कहाँ से

ज़मीं की ख़ाक तक दे दी ज़मीं को
मैं दामन झाड़ के उट्ठा जहाँ से

मक़ाम-ए-आशियाँ की जुस्तुजू में
गुज़र जा बिजलियों के दरमियाँ से

मुसलसल इम्तिहाँ है ज़िंदगानी
कहीं घबरा न जाना इम्तिहाँ से

बनाना है मुझे ख़ुद अपनी मंज़िल
अलग हूँ नक़्श-पा-ए-कारवाँ से

वही दुनिया उलट देते हैं 'शारिब'
जो अक्सर कुछ नहीं कहते ज़बाँ से