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मोहब्बत आप अपनी तर्जुमाँ है | शाही शायरी
mohabbat aap apni tarjuman hai

ग़ज़ल

मोहब्बत आप अपनी तर्जुमाँ है

जिगर मुरादाबादी

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मोहब्बत आप अपनी तर्जुमाँ है
यही ख़ुद चश्म ओ दिल लफ़्ज़ ओ बयाँ है

निगाहों में बहार-ए-जावेदाँ है
जहाँ मैं हूँ वहीं अब आशियाँ है

मोहब्बत दोनों जानिब मेहरबाँ है
कि हम उस से वो हम से बद-गुमाँ है

वो कब से मुज़्तरिब हैं ऐ ग़म-ए-इश्क़
ख़ुदा जाने तेरी ग़ैरत कहाँ है

हमारी रिफ़अतों का पूछना क्या
जहाँ हम पाँव रख दें आसमाँ है

कोई आवाज़ ही दे गुम-शुदा दिल
कहाँ है ओ मिरे यूसुफ़ कहाँ है

अगर तू है तो ऐ जान-ए-दो-आलम
यहाँ हर शय जवाँ जावेदाँ है

मज़े सोज़-ए-दरूँ के मिल रहे हैं
ब-हम्द-ओ-लिल्लाह कि दिल आतिश-ब-जाँ है

तमाशा दीदनी है देख जाओ
ज़बान-ए-शौक़ ओ गुलबाँग फ़ुग़ाँ है

मुबारकबाद ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत
उन्हें अपने पर अब मेरा गुमाँ है

किसी को इक नज़र ही देख तो लें
अब इतनी भी हमें जुरअत कहाँ है

तिरे नक़्श-ए-क़दम का ज़र्रा ज़र्रा
इबादत-गाह-ए-जान-ए-आशिक़ाँ है

इलाही ख़ैर करना देर से फिर
बहुत मुज़्तर निगाह-ए-राज़दाँ है

फुँका जाता है दिल जिस सोज़-ए-ग़म से
जहन्नम में ये चिंगारी कहाँ है

जो पढ़ सकता है तो पढ़ ऐ ग़म-ए-दिल
कि इन नज़रों में आज इक दास्ताँ है