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मिज़्गाँ हैं ग़ज़ब अबरू-ए-ख़म-दार के आगे | शाही शायरी
mizhgan hain ghazab abru-e-KHam-dar ke aage

ग़ज़ल

मिज़्गाँ हैं ग़ज़ब अबरू-ए-ख़म-दार के आगे

हफ़ीज़ जौनपुरी

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मिज़्गाँ हैं ग़ज़ब अबरू-ए-ख़म-दार के आगे
ये तीर बरस पड़ते हैं तलवार के आगे

ख़ैर उस में है वाइ'ज़ कि कभी मय की मज़म्मत
करना न किसी रिन्द-ए-ख़ुश-अतवार के आगे

कहना मिरी बालीं पे कि आसार बुरे हैं
करता है ये बातें कोई बीमार के आगे

शिकवे थे बहुत उन से शिकायत थी बहुत कुछ
सब भूल गए वस्ल की शब प्यार के आगे

ख़ल्वत में जो पूछो तो कहूँ दिल की हक़ीक़त
मुझ से न मिरा हाल सुनो चार के आगे

आईना अभी देख के ख़ुद-बीं तो वो हो लें
ख़ुद आएँगे फिर तालिब-ए-दीदार के आगे

क़ारूँ का ख़ज़ाना हो कि हातिम की सख़ावत
सब कुछ है मगर कुछ नहीं मय-ख़्वार के आगे

क्या मुझ को डराएँगी तिरी तेज़ निगाहें
ये आँख झपकती नहीं तलवार के आगे

दीवानों में दीवाने 'हफ़ीज़' आप हैं वर्ना
हुशियार से हुशियार हैं हुशियार के आगे