मिसाल-ए-तार-ए-नज़र क्या नज़र नहीं आता
कभी ख़याल में मू-ए-कमर नहीं आता
हमारे ऐब ने बे-ऐब कर दिया हम को
यही हुनर है कि कोई हुनर नहीं आता
मुहाल है कि मिरे घर वो रात को आए
कि शब को मेहर-ए-दरख़्शाँ नज़र नहीं आता
तमाम ख़ल्क़ में रहती है धूप रातों को
वो मेहर बाम से जब तक उतर नहीं आता
मुहाल है कि जहन्नम में ख़ुल्द से जाएँ
जो दर पर आप के जाता है घर नहीं आता
हमारी ज़ीस्त में थे साथ कौन कौन ऐ 'बर्क़'
अब एक फ़ातिहा को क़ब्र पर नहीं आता
ग़ज़ल
मिसाल-ए-तार-ए-नज़र क्या नज़र नहीं आता
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़