EN اردو
मिसाल-ए-मुश्क ज़बाँ से मिरी फ़साना गया | शाही शायरी
misal-e-mushk zaban se meri fasana gaya

ग़ज़ल

मिसाल-ए-मुश्क ज़बाँ से मिरी फ़साना गया

क़मर अब्बास क़मर

;

मिसाल-ए-मुश्क ज़बाँ से मिरी फ़साना गया
मैं इक तरन्नुम-ए-ख़ुश-लब जिसे सुना न गया

गुलों के इश्क़ में ख़ारों से दोस्ती कर ली
बस एक मुर्ग़-ए-चमन था जो आशिक़ाना गया

हुई थी रहनुमाई मगर ये जुर्म का शौक़
उसी के कूचा-ए-क़ातिल में मुजरिमाना गया

कभी तसव्वुर-ए-जानाँ कभी तसल्ली-ए-दिल
तुम्हारी याद से ख़ाली कभी रहा न गया

मिरा ये जुर्म भी लिख दे मिरे नविश्ते में
कि मैं तकल्लुफ़-ए-उल्फ़त में मुख़्लिसाना गया

किताब-ए-ज़ीस्त की ताबीर मर्ग-ए-दिल ही तो है
जिसे सुना तो गया है अभी पढ़ा न गया

सियाह रात की तन्हाइयाँ ख़ुदा की पनाह
'क़मर'-नज़ाद था दिलबर तो दिल-बराना गया