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मिरी तक़दीर शिकवा-संज दौर-ए-आसमाँ क्यूँ हो | शाही शायरी
meri taqdir shikwa-sanj daur-e-asman kyun ho

ग़ज़ल

मिरी तक़दीर शिकवा-संज दौर-ए-आसमाँ क्यूँ हो

तालिब बाग़पती

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मिरी तक़दीर शिकवा-संज दौर-ए-आसमाँ क्यूँ हो
मिले जब दर्द में लज़्ज़त तलाश-ए-मेहरबाँ क्यूँ हो

शरीक-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ाद कोई हम-ज़बाँ क्यूँ हो
तुम्हीं बतलाओ मा'नी-ख़ेज़ मेरी दास्ताँ क्यूँ हो

वही दिल है वही ख़्वाहिश वही तुम हो वही मैं हूँ
मिरी दुनिया में आख़िर इंक़िलाब-ए-आसमाँ क्यूँ हो

वो मेरे बा'द रोते हैं अब उन से कोई क्या पूछे
कि पहले किस लिए नाराज़ थे अब मेहरबाँ क्यूँ हो

बगूलों में उड़े जब ख़ाक मेरे आशियाने की
क़फ़स की सम्त ही यारब हवा-ए-गुलसिताँ क्यूँ हो

तुम्हें फ़रियाद-रस कहते हैं मैं फ़रियाद करता हूँ
तुम्हें आख़िर बताओ फिर ये कोशिश राएगाँ क्यूँ हो

सताना ही अगर मंज़ूर है कह दो सताते हैं
मिरी तक़दीर के पर्दे में मेरा इम्तिहाँ क्यूँ हो

हमें मा'लूम है 'तालिब' हक़ीक़त राज़-ए-हस्ती की
मगर इस बे-हक़ीक़त की हक़ीक़त ही अयाँ क्यूँ हो