मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं
लिखा है ये ख़त में कि हम आ रहे हैं
ठहर जा ज़रा और ऐ दर्द-ए-फ़ुर्क़त
हमारे तसव्वुर में वो आ रहे हैं
ग़म-ए-आक़िबत है न फ़िक्र-ए-ज़माना
पिए जा रहे हैं जिए जा रहे हैं
नहीं शिकवा-ए-तिश्नगी मय-कशों को
वो आँखों से मय-ख़ाने बरसा रहे हैं
वो रश्क-ए-बहार आने वाला है 'अख़्तर'
कँवल हसरतों के खिले जा रहे हैं
ग़ज़ल
मिरी शाम-ए-ग़म को वो बहला रहे हैं
अख़्तर शीरानी