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मिरी चाह में मिरे इश्क़ में तू कभी किसी से लड़ा नहीं | शाही शायरी
meri chah mein mere ishq mein tu kabhi kisi se laDa nahin

ग़ज़ल

मिरी चाह में मिरे इश्क़ में तू कभी किसी से लड़ा नहीं

जावेद जमील

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मिरी चाह में मिरे इश्क़ में तू कभी किसी से लड़ा नहीं
इसी भूल का ये अज़ाब है तू मिरा नहीं मैं तिरा नहीं

था गुलाब मैं थी ये आरज़ू तिरे गेसुओं में खिलूँ कभी
नहीं खिल सका तो ये जान ले ये तिरी है मेरी ख़ता नहीं

तिरी याद मुझ से बहुत लड़ी मिरे अंग अंग में ज़ख़्म है
मैं तड़पता रहता हूँ दर्द से तुझे फ़िक्र मेरी ज़रा नहीं

मिरा दिल तो तेरे ही पास है तू इसे खँगाल के देख ले
वहाँ तू ही तू है हर इक तरफ़ वहाँ कुछ भी तेरे सिवा नहीं

तिरे इश्क़ से मुझे क्या मिला मिरी ज़िंदगी हुई मौत सी
मुझे अब तलाश सुकूँ की है मुझे अब जुनून-ए-हिना नहीं

मुझे ऐसी ज़ात से इश्क़ है जो हो मेहरबान तो मौत कब
है फ़नाइयत में निहाँ बक़ा है बक़ा अगर तो फ़ना नहीं