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मिरे सुख़न को वो ए'जाज़ दे ख़ुदा-ए-सुख़न | शाही शायरी
mere suKHan ko wo eajaz de KHuda-e-suKHan

ग़ज़ल

मिरे सुख़न को वो ए'जाज़ दे ख़ुदा-ए-सुख़न

वक़ार मानवी

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मिरे सुख़न को वो ए'जाज़ दे ख़ुदा-ए-सुख़न
कि हर्फ़ हर्फ़ बने गंज-ए-बे-बहा-ए-सुख़न

सुकूत तोड़े कभी तू भी दिल की बात कहे
ख़ुदा करे कभी तेरे भी लब पे आए सुख़न

ग़ज़ब ख़ुदा का कड़ी धूप का तवील सफ़र
और उस सफ़र का असासा बस इक रिदा-ए-सुख़न

हदीस-ए-ग़म का बयाँ है बग़ैर-ए-जुम्बिश-ए-लब
है ख़ामुशी भी मिरी ऐन मुद्दआ-ए-सुख़न

बदन से लिपटी रही तार तार हो कर भी
हमें अज़ीज़ भला क्यूँ न हो क़बा-ए-सुख़न

हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल कह के सीने पड़ गए लब
हमें ये चुप भी लगी है तो बर-बिना-ए-सुख़न

निभे तो कैसे निभे अब ये सोचना है 'वक़ार'
कि वो सुख़न से गुरेज़ाँ है मैं फिदा-ए-सुख़न